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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


उन्माद (कहानी) : मुंशी प्रेमचंद
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तीन दिन तक मनहर घर से न निकला। जीवन के पांच छः वर्षों मॆं उसने जितने रत्न संचित किये थे, जिन पर वह गर्व करता था; जिन्हे पाकर वह अपने को धन्य समझता था, अब परीक्षा की कसौटी पर जाकर नकली सिद्व हो रहे थे। उसकी अपमानित, ग्लानित, पराजित आत्मा एकांत रोदन के सिवा और कोई त्राण न पाती थी। अपनी टूटी झोपड़ी को छोड़कर वह जिस जिस सुनहले कलश वाले भवन की ओर लपका था, वह मरीचिका मात्र थी और उसे अब फ़िर अपनी टूटी झोपड़ी याद आई, जहां उसने शांतिम प्रेम और आशीर्वाद की सुधा पी थी। यह सारा आडम्बर उसे काट खाने लगा। उस सरल, शीतल स्नेह केसामने ये सारी विभूतियां उसे तुच्छ सी जंचने लगीं। तीसरे दिन वह भीषण संकल्प करके उठा और दो पत्र लिखे। एक तो अपने पद से इस्तीफाथा, और दूसरा जेनी से अंतिम विदा की सूचना। इस्तीफे मॆं उसने लिखा- मेरा स्वास्थ्य नष्ट हो गया है और मैं इस भार को नहीं सम्भाल सकता। जेनी के पत्र में उसने लिखा-हम और तुम दोनो ने भूल की है और हमें जल्द से जल्द उस भूल को सुधार लेना चाहिये। मैं तुम्हे सारे बन्धनों से मुक्त करता हूं। तुम भी मुझे मुक्त कर दो। मेरा तुमसे कोई सम्बन्ध नहीं है। अपराध न तुम्हारा है, न मेरा। समझ का फेर तुम्हे भी था और मुझे भी । मैंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया है और अब तुम्हारा मुझ पर कोई अहसान नहीं रहा। मेरे पास जो कुछ है, वह तुम्हारा है, वह सब मैं छोड़े जाता हूं। मैं तो निमित्त-मात्र था स्वामिनी तुम थी। उस सभ्यता को दूर से ही सलाम है, जो विनोद और विलास के सामने किसी बन्धन को स्वीकार नहीं करती।
उसने खुद जाकर दोनों की रजिस्ट्री करायी और उत्तर का इंतजार किये बिना ही वहां से चलने को तैयार हो गया।

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